हमार थारुन्के गन्तव्य !

कविता

लक्की चौधरी

खै कहाँसे शुरु करुँ ? कहाँ अन्त्य ??
नै देख्थुँ कहुँ, हमार थारुन्के गन्तव्य ।
बैठक, ख्याल, कचहरीमे सुन्थुँ मन्तव्य,
कुही नैदेख्थुँ, पूरा करत् आपन कर्तव्य ।।१।।

कमजोर बा प्रतिनिधित्व, राजनीति, प्रशासन
कहिया हुई हमार, नेतृत्वमे देशके शासन ?
एकतासे काम करी, नै हो जरुरी अब भाषन,
मेहनत कर्वी तब ना, घर भर्के हुई राशन ।।२।।

पढी लिखी गुनी बनी, खाई कोई जहागरी,
मुद्दा मामिलाके काममे, तग्रासे आघे सरी ।
चुप लागके बैठ्ना नै हो, लर्ना ठाउँमे लरी,
मेहनत कर्बी तब ना, प्रगतिके फारा फरी ।।३।।

शिक्षा, ज्ञान हो हतियार, करी सबजे आर्जन,
भ्रममे नापरी, नैसेक्बी चलाई आब महाजन ।
दुःख करुइया थारु पुर्खा, मस्ती कर्लै राजन्
नै पढ लिखके दुःख पैलैं, हमार पुर्खा आजन् ।।४।।

राजतन्त्र, प्रजातन्त्र, हेर्ली पञ्चायत लोकतन्त्र,
शासन व्यवस्था फेरगिल, आइल फेर गणतन्त्र ।
बदलगिल जमाना मने, नै बदलल् हमार तन्त्र,
कहिया जग्बी कबतक, हुईती रही षडयन्त्र ।।५।।

एक आपसमे लर्थी हम्रे, झैगडा फे बहुत कर्थी,
दोसरके प्रगति देखके, भित्रे भित्रे बहुत जर्थी ।।
घरेक् बाघ हम्रे, बाहर केक्रो आघे नै पर्थी,
नै पियतसम लाट हम्रे, पितिकिल गन्जी फर्थी ।।६।।

युपा पुस्ता देखाउ डगर, कहाँ हो गन्तव्य ?
कसिक बनी आब हमार, शान मान भव्य ??
गुजरगिल समय बहुत, आझु करी अब्बे,
पढ्बी लिख्बी तबकिल, बन्बी हम्रे सभ्य ।।७।।

तपाईको प्रतिक्रिया